मूल मनुस्मृति स्त्री-विरोधी शूद्र-विरोधी या जातिवादी, नहीं है- अशोक बालियान 

मूल मनुस्मृति स्त्री-विरोधी शूद्र-विरोधी या जातिवादी, नहीं है- अशोक बालियान 
मूल मनुस्मृति जातिवादी, शूद्र-विरोधी या स्त्री-विरोधी नहीं है। मनुस्मृति के अनुसार जिस समाज या परिवार में स्त्रियों का आदर- सम्मान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्यगुण और सुख़-समृद्धि निवास करते हैं। स्त्री की सहभागिता किसी भी धार्मिक और अध्यात्मिक कार्यों के लिए अति आवश्यक है।
मूल मनुस्मृति शूद्र या जातिवादी विरोधी नहीं है। शूद्र भारत में हिन्दू वर्ण व्यवस्था के चार वर्णों में से एक है। जो कि कर्म के आधार पर कर दिया गया था। वेदों में परिश्रम करने वाले को शूद्र कहा है। और वेद में ये चारों वर्ण समान माने गए हैं। माना जाता है कि महर्षि मनु ने अपनी राज्य व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए समाज में वर्ग बनाकर चार तरह के कर्म सौंप दिए थे। राज्य में पुरोहितों, क्षत्रियों, वैश्यों और श्रम करने वालों (शूद्र) की नियुक्त होती थी। जो भी व्यक्ति जिस भी योग्यता का होता था, उसके लिए उस तरह का प्रशिक्षण दिया जाता था और योग्यता के आधार पर नियुक्ति हो जाती थी। कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता अनुसार कुछ भी हो सकता था। विदुर दासी पुत्र थे। तब भी वो ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया था।
उस काल में किसी समुदाय, कबीले, समाज या अन्य भाषा का व्यक्ति दूसरे कबीले की स्त्री से विवाह कर लेता था तो उसे उस समुदाय, कबीले, समाज या भाषायी लोगों के समूह से बहिष्कृत कर दिया जाता था। उसी तरह जो कोई श्वेत रंग का व्यक्ति काले रंग की लड़की से विवाह कर लेता था तो उसे उक्त समूह के लोग उसे बहिष्कृत कर देते थे या उसका तिरस्कार करते थे। इसप्रकार मनुष्यो में रंगों का सफर कर्म से होकर आज की जाति व्यवस्था का रूप ले चुका है। जबकि समस्त मानव जाति ईश्वर कि संतान है। यह तथ्य जानने के बाद भी छुआ छूत के नाम पर, ऊँच नीच के नाम पर, आपस में भेदभाव करना अज्ञानता का बोधक है।
कालांतर में बहिष्कृत लोगों का भी अलग समूह और समाज बनने लगा। लेकिन इस तरह के भेदभाव का संबंध धर्म से कतई नहीं माना जा सकता। बाद में यही समूह अपने हितों की रक्षा के लिए समाज में बदलकर अपने ही समाज से रोटी और बेटी का व्यवहार करने लगा। उक्त समाज को उनके कार्य के आधार पर पुकारा जाने लगा। जैसे की कपड़े सिलने वाले को दर्जी, कपड़े धोने वाले को धोबी, बाल काटने वाले को नाई, शास्त्र पढ़ाने वाले को शास्त्री, पुरोहिताई करने वाले को पुरोहित आदि। ऐसे कई समाज निर्मित होते गए जिन्होंने स्वयं को दूसरे समाज से अलग करने और दिखने के लिए नई परम्पराएं निर्मित कर ली थी और अपने-अपने देवता भी मानने शुरू कर दिये थे। इस समय जाति का अर्थ मानव के जन्म (उत्पत्ति) के आधार पर किया गया वर्गीकरण है। अर्थात जिनके जन्म का मूल (समूह) समान हो, तो वह एक जाति कहलाते है।
सनातन धर्म (हिंदू धर्म) मानव के बीच किसी भी प्रकार के भेद को नहीं मानता है। समाज में उपनाम, गोत्र, जाति आदि यह सभी कई हजार वर्ष की परंपरा का परिणाम है, इसमें हिन्दू ग्रंथों का दोष नहीं है लेकिन हिन्दू ग्रंथों पुराणों आदि के साथ छेड़खानी की गई है, जिस कारण हम जानकारी के अभाव मे उनको दोष देने लगे है। जबकि वैदिक समाज में श्रम का गौरव पूर्ण स्थान रहा है।
मनुस्मृति के 12 अध्याय में कुल 1214 श्लोक हैं, जबकि कुछ प्रकाशनों में मनुस्मृति में इसके दुगने से भी अधिक श्लोक मिलते हैं । मनुस्मृति में क्रमश: सृष्टि, दर्शन, धर्म-चिंतन, सामान्य जीवन के विधि-विधान, गृहस्थ-जीवन के नियम, स्त्री, विवाह, राज्य-राजा संबंधी परामर्श, वैश्य-शूद्र संबंधी कर्तव्य, प्रायश्चित, कर्मफल विधान, मोक्ष और परमात्मा पर चिंतन है। विद्वानों के अनुसार अनेक प्रकाशनों में आधे से अधिक श्लोक मूल मनुस्मृति के नहीं हैं। मूल मनुस्मृति में जाति का उल्लेख नहीं है। भारतीय परंपरा में जाति शब्द के ही असंख्य अर्थ हैं। जैसे आर्य- जाति, स्त्री-जाति, हिंदू-जाति आदि प्रयोग सदैव चलते रहे हैं। इसलिए मनुस्मृति का ‘शूद्र’ आज का फलां समूह या जाति है, यह गलत निष्कर्ष है।
महर्षि मनु की निंदा करने वाले ज्यादातर लोगों ने मनुस्मृति को कभी गंभीरता से पढ़ा ही नहीं बल्कि दूसरों से केवल सुना भर है या उनके द्वारा दिखाये गये कुछ पंक्तियों पर ही भरोसा कर के अपनी एक सोच बना चुके हैं। हिन्दू परंपरा में शूद्र एक वर्ण है, जन्म-जाति नहीं। लेकिन समय के साथ जाति की विविधता का पूरा आधार व्यवसाय की विविधता ही बन गया था।
भारत के इतिहास में कुछ काल में यह भी हुआ है कि हिन्दू ग्रन्थों में मिलावट की गयी है। इस प्रकार मनुस्मृति में बाद के समयों में शूद्रों के प्रति कुछ अपमानसूचक शब्दों को जोड़ दिया गया था, जबकि मनुस्मृति उस काल की है जब जन्म आधारित जाति व्यवस्था के विचार का भी कोई अस्तित्व नहीं था। पाश्चात्य विद्वान जैसे मैकडोनल, कीथ, बुलहर इत्यादि भी मनुस्मृति में मिलावट मानते हैं। मूल मनुस्मृति वेदों की मान्यताओं पर आधारित है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती और स्वामी विवेकानन्द की तमाम शिक्षाओं, सेवा और जीवन-कर्म का आधार वेद, उपनिषद और मनुस्मृति हैं। यदि मनुस्मृति जातिवादी, शूद्र-विरोधी या स्त्री-विरोधी होती, तो वे संपूर्ण भारत में इतना बड़ा आधुनिक, समतामूलक, प्रभावशाली सुधार आंदोलन चलाने में कैसे सफल हुए होते? इसलिए मूल मनुस्मृति स्त्री-विरोधी शूद्र-विरोधी या जातिवादी, नहीं है।

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